हरमोहन धवन जी ने अपनी आप बीती में मीडिया के कड़वे सच से एक बार फिर परदा उठाया है। मैं इसे थोड़ा और उपर खिसकाने की जुर्रत कर रहा हूं। मैं यहां अपने पत्रकार मित्रों के मुंह से सुनी बातें भी नहीं करुंगा। मैं आपको वहीं बता रहा हूं जो अपनी आंखों से देखा है। मेरा इरादा पत्रकारों की जमात, जिसमें मैं खुद भी शामिल हूं को कठघरे में खड़ा करने का नहीं है, पर इतना जरूर कहना चाहता हूं कि जो व्यापारी करोड़ों का निवेश करेगा वह तो केवल लाभ के बारे में ही सोचेगा, लेकिन पत्रकार द्वारा उसकी हां में हां मिलाना कहां तक जायज है? सवाल आपके सामने है जबाव भी आपको ही खोजना है...
बात लोकसभा चुनावों की है। जगह है राजस्थान के एक दैनिक अखबार का न्यूज़ रूम। यहां रोज की तरह समाचारों को अंतिम रूप दिया जा रहा है, पर माहौल कुछ बदला-बदला है। न्यूज़ एडीटर की टीम में आज एक नया शख्स दिखाई दे रहा है। यह व्यक्ति संस्थान में काम नहीं करता है, लेकिन समाचार बनाने में खूब दखल दे रहा है। समाचार बन जाते हैं, पर यह व्यक्ति वहीं डटा रहता है। पेज बनने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद जब अखबार छपने चला जाता है तभी वह रवाना होता है। जी हां, लोकसभा चुनाव के दौरान उम्मीदवारों के मीडिया मैनेजरों की पहुंच इसी तरह से राज्य के बड़े कहे जाने वाले समाचार पत्रों तक रही। हालांकि संस्करणों के हिसाब से इसमें ऊंच-नीच देखने को मिली। पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के लिए ज्यों ही पार्टी ने उम्मीदवारों की घोषणा की मीडिया समूह 'मोटी कमाई' के लिए सक्रिय हो गए। बाकायदा पैकेज बनाए गए। पैकेज का मोटा या छोटा होना चुनाव लड़ने वाले की व्यक्तिगत हैसियत और उसकी पार्टी पर निर्भर था। औसत रूप से इसकी राशि 5 से 15 लाख रूपए के बीच में रही।
मीडिया समूहों की एक पूरी टीम उम्मीदवारों को पैकेज का मजमून समझाने आती। इन्हें उम्मीदवारों के चुनाव कार्यालयों तक में आने से गुरेज नहीं रहता। हैरत की बात तो यह रही कि इसमें मार्केटिंग के लोगों के अलावा पत्रकार भी शामिल होते थे। जब बात पैसों पर आ जाए तो डीलिंग में सारी बातें खुलकर होती। कितना कवरेज मिलेगा, कैसे मिलेगा, दूसरी पार्टी के प्रत्याशी से क्या डील हुई है या होगी, उसने भी इतने ही पैसे दे दिए तो क्या होगा सरीखे सवाल उम्मीदवार या उनके नुमाइंदों की ओर से दागे जाते। टीम हर सवाल का जबाव देने की कोशिश करती। आखिर में मोलभाव होता। इतना तो कीजिए...थोड़ा और....जैसी मिन्नतों के बीच टीम की ओर से पैकेज को अधिकतम रखने का प्रयास होता, लेकिन कम मिलने पर भी डील होती। कुल मिलाकर इस टीम का एक ही उद्देश्य था, किसी को बख्शा नहीं जाए सबसे कुछ न कुछ लिया जाए। किसी से खबरें प्लांट करने के नाम पर तो किसी से विज्ञापन के नाम पर। कहते हैं बेईमानी का काम पूरी ईमानदारी से किया जाता है, लेकिन कई उम्मीदवारों को शिकायत रही कि पैकेज देते वक्त उनसे जो वादे किए उन्हें पूरा नहीं किया गया। जब इसकी शिकायत की जाती तो एक ही जबाव मिलता, 'इतने पैकेज में यही मिलेगा, ज्यादा चाहिए तो ओर पैसे दो।'
जब बड़े अखबारों की यह हालत रही तो छोटों की स्थिति तो बदतर होनी ही थी। पीत पत्रकारिता के दम पर जिंदा रहने वाले इन अखबारों से तो वैसे भी ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। बड़े अखबारों की तर्ज पर इस बार इन्होंने भी पैकेज सिस्टम शुरू किया था, लेकिन यह कारगर नहीं रहा। इन्हें जिस उम्मीदवार से जितना पैसा मिल गया उसी से संतोष करना पड़ा। हालांकि इन्होंने अपने काम में पूरी ईमानदारी बरती। जिससे दाम मिला उसका पूरा काम किया और जिससे नहीं मिला उसका काम तमाम किया। इन अखबारों में ऐसे उम्मीदवारों को जीतता हुआ बताया गया जिन्हें पांच हजार वोट भी नहीं मिले और उन उम्मीदवारों को मुकाबले से बाहर बताया गया जो लाखों वोटों के अंतर से चुनाव जीते। समाचारों को अतिशियोक्तिपूर्ण तरीके से लिखे जाने की सारी हदें इन अखबारों ने पार कीं।
वैसे तो यह सब पत्रकारिता के मूल्यों को मिट्टी में मिलाने वाले कार्यकलाप थे, पर राहत की बात यह रही कि राज्य का कोई भी बड़ा समाचार पत्र किसी पार्टी विशेष का पोस्टर या मुख पत्र नहीं बना। उन खबरों को छोड़ दिया जाए जो उम्मीदवारों ने पैसे देकर प्लांट कराई थीं, तो बाकी समाचारों के कंटेंट में ज्यादा बेईमानी नहीं की गई। जो खबरें प्लांट कराई गईं, उनमें भी सब कुछ उम्मीदवार की मर्जी से या अतिशियोक्तिपूर्ण नहीं था। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि पाठक को वह समाचार ही लगे, विज्ञापन नहीं। हां, उम्मीदवारों के चुनावी दौरों या किसी बड़े नेता की सभा के कवरेज में जरूर भेदभाव देखने को मिला। मसलन, किसी बड़े नेता की सभा में खूब भीड़ आई, लेकिन पार्टी के कुछ स्थानीय नेता उसमें नहीं आए। अगले दिन अखबारों में यह खबर उम्मीदवार के साथ उनकी ट्यूनिंग के हिसाब से ही आई। जिनसे अच्छे पैकेज की डील हुई उन्होंने खबर छापी 'सभा में उमड़ा जनसैलाब' और जिनसे नहीं हुई उन्होंने खबर छापी 'पार्टी की फूट उजागर'।
कितने शर्म की बात है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दावा करने वाला मीडिया लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंभों को मजबूत करने की झूठी मुहिम में स्वयं ही ध्वस्त होता जा रहा है। इससे ज्यादा दुखद बात क्या होगी कि एक तरफ मीडिया मतदाताओं को जागरूक करने का अभियान चला स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान की बातें करता है और दूसरी तरफ उन्हीं उम्मीदवारों या पार्टियों के हाथों बिक जाता है। कुल मिलाकर मीडिया एक मंडी में तब्दील हो चुका है, जहां बिकते सब हैं, कोई कम तो कोई एकदम!
(पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम पवक्ता’ में प्रकाशित)
(पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम पवक्ता’ में प्रकाशित)
aapne darpan dikhaya hai
जवाब देंहटाएंmain aapki himmat ka sammaan karta hoon
aise hi karte rahen...
waah
waah !