गुरुवार, मार्च 11, 2010

अभी दूर है दिल्ली


संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा में मंगलवार को इतिहास बना भी और घटा भी। आधी आबादी को संवैधानिक हक देने के लिए सिर्फ संख्याबल के साथ-साथ बाहुबल की भी जरूरत पड़ेगी, इसकी उम्मीद जरा कम थी। जो भी हो सदन से सात सांसदों के निलंबन, मार्शलों के जरिए माननीयों का निष्कासन और अभूतपूर्व हंगामे के बाद अंतत: राज्यसभा में लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला 108वां संविधान संशोधन विधेयक पारित हो ही गया। इससे महिलाओं के राजनीतिक हक की शुरुआत भले ही हो गई हो, लेकिन असल में उनके लिए दिल्ली अभी बहुत दूर है। राज्यसभा में तमाम लानत-मलानत के बाद मंजूर हुए महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा की अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। साथ ही कम से कम 14 विधानसभाओं की पथरीली गलियों को भी पार करना होगा। एक-दूसरे से आगे निकलने और श्रेय लेने की होड़ में महिला आरक्षण विधेयक पर बेमन से ही सही, कांग्रेस, भाजपा और वामपंथियों ने जिस तरह से हाथ मिलाया है, उससे संख्याबल के लिहाज से लोकसभा में भी विधेयक का पारित होना आसान दिख रहा है, लेकिन वास्तव में राह बेहद मुश्किल है। मुलायम, लालू और शरद यादव के बाद ममता बनर्जी की पार्टी के सदस्यों का भी राज्यसभा से अनुपस्थित रहना इसका खुला संकेत है। सरकार को लोकसभा में नई चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। राज्यसभा में पटकनी खाने के बाद मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जिस तरह से क्षेत्रीय दलों के नेताओं से संपर्क साध रहे हैं, उससे कयास लगाया जा रहा है कि सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी है। जाहिर तौर पर यह सरकार के लिए यह बड़ी असहज और चुनौतीपूर्ण स्थिति हो सकती है। ध्यान रहे कि महिला बिल पर कांग्रेस के रुख से उसके कुछ सहयोगी भी खुश नहीं हैं। ममता ने तो अपनी असहमति छिपाई भी नहीं। ऐसे ही तमाम छोटे दल हैं, जिनमें आसमान छूती महंगाई पर सरकार के अनमने रुख से गुस्सा बढ़ रहा है। ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव सरकार के लिए परेशानी बढ़ा सकता है। लालू, मुलायम और शरद जैसे विरोधियों को लगता है कि सरकार इसके बाद उन्हें अनसुना करने में असमर्थ होगी। सरकार से समर्थन वापसी की धमकी देकर मुलायम और लालू ने सोमवार को तो सरकार को रोक लिया था, लेकिन मंगलवार तक उसका असर खत्म हो गया। राज्यसभा में सख्ती के सहारे सरकार ने विधेयक पारित करवा लिया। यादव तिकड़ी नहीं चाहते कि लोकसभा में भी इसी तरह की चरम स्थिति पैदा हो। अविश्वास प्रस्ताव के जरिए सरकार को यही संकेत देने की कोशिश होगी। मान लीजिए किसी तरह से लोकसभा में भी विधेयक पारित हो जाता है, तो फिर इसे विधानसभाओं की ड्योढ़ी लांघनी होगी। ध्यान रहे कि कुल 50 फीसदी विधानसभाओं को इस विधेयक पर मुहर लगानी होगी। क्षेत्रीय क्षत्रपों के अब तक के तेवरों को देखते हुए यह आसान कतई नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल नहीं चाहेगा कि महिला आरक्षण विधेयक की कीमत सियासी नुकसान के रूप में चुकानी पड़े। बंगाल में ममता तो बिहार में नीतीश और उत्तर प्रदेश में मायावती महिला आरक्षण पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त लेने में कोई हिचक दिखाने वाले नहीं हैं। ममता ने राज्यसभा में अध्यादेश के समर्थन से कन्नी काटने, तो नीतीश ने अपनी पार्टी की टूट के जोखिम पर भी इसके पक्ष में खड़े होने के और क्या निहितार्थ हैं? वहीं मायावती ने विरोध का तरीका ऐसा निकाला, जिससे वह सपा के साथ खड़ी कतई न दिखाई पड़े। उनकी पार्टी ने विरोध तो किया, लेकिन सपा के रुख के विपरीत विधेयक पर चर्चा में भाग लेकर अपने तर्क रखते हुए। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के कब्जे से मुस्लिम वोट बैंक खींचने का ममता को यह अच्छा मौका नजर आया। तब ही तो तृणमूल के दो सांसदों ने अंतिम क्षणों में मुस्लिम समुदाय का अलग कोटा मांगकर राज्यसभा में विधेयक पर वोटिंग से गैरहाजिर हो गए। निश्चित रूप से बिल को बिना बहस पारित कराने पर माकपा की मुहर के बाद ही ममता ने यह राजनीतिक दांव खेला। जहां ममता ने चुनाव से पहले बंगाल विधानसभा में महिला विधेयक पर वाममोर्चा सरकार को असहज करने के लिए आधार तैयार कर लिया, वहीं बिहार में सवर्ण वोट बैंक को खिसकने से बचाने के लिए नीतीश कुमार को भी चुनावी साल में यह विधेयक प्रभावी राजनीतिक अस्त्र समझ में आया। पंचायत में आरक्षण के जरिए पिछड़े वर्ग को पहले ही मोहपाश में बांध चुके बिहार के मुखिया सवर्णों की नाखुशी को नजरअंदाज नहीं कर सकते। राजद की राजनीति को पिछड़ों और अगड़ों दोनों के बीच निष्प्रभावी बनाने के लिए विधेयक के समर्थन का रास्ता ही नीतीश को भाया। इस विधेयक को कानून बनने में सियासी उलझनों के अलावा प्रक्रियागत उलझने भी कम पेचीदा नहीं हैं। लोकसभा की मंजूरी के बाद इसे राष्ट्रपति के पास अधिसूचना के लिए भेजा जायेगा। फिर इस सरकारी गजट को विधानसभाओं की मंजूरी जरूरी होगी। ध्यान रहे देश में कुल 28 विधानसभाएं हैं, जिनमें से कम से कम 14 में इस विधेयक को दो तिहाई बहुमत से मंजूरी मिलनी जरूरी है। यहां से मंजूरी मिलने के बाद संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जाएंगी। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली इसके लिए एक अलग कानून बनाने की वकालत कर रहे हैं। महिला आरक्षण विधेयक में तीन बड़े प्रावधान किये गये हैं। विधेयक में संसद समेत राज्य विधानसभाओं की 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। आरक्षण का प्रावधान 15 सालों के लिए होगा। चुनाव क्षेत्रों को रोटेशन प्रणाली के आधार पर आरक्षित किया जायेगा। चुनाव में पहले से ही अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को मिल रहे आरक्षण कोटे में उसी जाति की महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण प्रदान किया जाएगा। यहां सवाल यह है कि देश की राजनीति इस अहम बदलाव से किस रूप में प्रभावित होगी। यदि संसद के स्तर पर ही बात करें तो, महिला आरक्षण के अमल के आने के बाद देश की सबसे बड़ी पंचायत की लगभग आधी सीटें आरक्षित हो जाएंगी। अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए पहले से 131 सीटें आरक्षित हैं। दो सीटें एंग्लो इंडियन समुदाय के सदस्यों के नामांकन के जरिए भरी जाती हैं। इस तरह 545 के सदन में नामांकन से भरी जाने वाली दो सीटें हटाने के बाद 181 सीटें महिलाओं (अनुसूचित जाति-जनजाति समेत) के लिए आरक्षित होंगी। तब अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए 87 सीटें आरक्षित रह जाएंगी। इस तरह कुल 268 सीटें आरक्षित होंगी और 275 अनारक्षित होंगी। इससे भी ज्यादा एक और महत्वपूर्ण पहलू है- रोटेशन प्रणाली। यह निश्चित रूप से सांसदों को उनके दायित्व व निष्ठा के प्रति उदासीन भी करेगी। इस रोटेशन प्रणाली के तहत 362 सांसदों को हमेशा मालूम होगा कि अगले लोकसभा चुनाव में उन्हें अपने पुराने लोकसभा क्षेत्र से लडऩे का मौका नहीं मिलेगा। दरअसल रोटेशन प्रणाली लागू होने के बाद 181 महिला सांसदों का चुनाव क्षेत्र बदलेगा, तो दूसरे 181 सदस्य अपने आप प्रभावित होंगे। जाहिर तौर पर कुछ ही कद्दावर नेता ऐसे होंगे, जिन्हें दूसरे लोकसभा क्षेत्र से भी चुनाव लडऩे में बहुत दिक्कत नहीं आएगी। एक तरह से देखें तो एक पारी के बाद सांसदों का राजनीतिक भविष्य अधर में होगा। सबसे बड़ा खतरा यह है कि सांसदों को पता होगा कि पांच साल उन्हें कोई छूने वाला नहीं और अगले चुनाव में उन्हें टिकट मिलने वाला नहीं। ऐसे में वे अपने संसदीय क्षेत्र के प्रति कितनी प्रतिबद्धता दिखाएंगे और उसके विकास में कितनी रुचि लेंगे, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। हालांकि इन तर्कों को आधार बनाकर राजनीति में महिला आरक्षण को नकारा नहीं जा सकता। आरक्षण निश्चित रूप से मिले, लेकिन यह ध्यान रहे कि इससे महिलाओं की स्थिति और लोकतंत्र दोनों मजबूत हो, कमजोर नहीं।

गुरुवार, फ़रवरी 25, 2010

सचिन तुझे सलाम...


रिकॉर्ड्स सचिन तेंदुलकर का परछाई की तरह पीछा करते हैं। ढेरों शतक, रनों का अंबार, बेहतरीन स्ट्राइक रेट और अब वन डे क्रिकेट के इतिहास में पहला दोहरा शतक! इन्हें देखकर आंख का अंधा भी कह सकता है कि सचिन जब तक खेलेंगे, कोई न कोई नया रिकॉर्ड उनके नाम के साथ जुड़ता रहेगा। दुनिया का कोई भी आलोचक 147 गेंदों पर तीने छक्कों और 25 चौकों से सजी 200 रन की उनकी ऐतिहासिक पारी में ऐसा नुक्स नहीं निकाल सकता जिससे कहा जा सके कि काश, सचिन ने कीर्तिमान बनाने की जगह टीम को जीत दिलाने की चिंता की होती।
निश्चय ही क्रिकेट के हर पैमाने पर सचिन का मुकाबला सिर्फ और सिर्फ सचिन से ही है। पिछले कुछ सालों में टीम इंडिया को, खासकर छोटे संस्करणों वाली क्रिकेट के कुछ चमकदार खिलाड़ी मिले हैं, लेकिन सचिन के कद के सामने ये सब बौने ही दिखाई देते हैं। भारतीय टीम ही नहीं, पूरी दुनिया की टीमों में सचिन सा खिलाड़ी नहीं है। मैच विनर होने के लिए किसी भी खिलाड़ी में जो धैर्य, संतुलन और चुनौती झेलने का जज्बा होना चाहिए, वह सचिन में कूट-कूट कर भरा है। यह बिल्कुल संभव है कि किसी शहर-कस्बे की अनजान गली में खिड़कियों के शीशे चटकाते कई होनहारों में प्रतिभा की कमी नहीं है, लेकिन सचिन जैसा बनने के लिए प्रतिभा ही नहीं लगन और मेहनत भी जरूरी है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में बिताए उनके 20 सालों का अरसा देखें, तो सचिन तेंदुलकर एक क्रिकेटर की उम्र के लिहाज से आखिरी दौर में कहे जा सकते हैं, लेकिन उनके सतत प्रदर्शन से लगता है कि वे असल में सड़क की वैसी ढलान पर हैं, जहां स्पीड और तेज हो जाती है। अब कोई दूसरा बल्लेबाज उनके रिकॉर्ड्स के आसपास भी नहीं लगता, ऑस्ट्रेलिया के रिकी पोंटिंग टेस्ट में शतकों के साथ उनसे होड़ में हैं, लेकिन अब उनसे शतकों की ज्यादा उम्मीद नहीं बची है। अलबत्ता सचिन के प्रदर्शन से लगने लगा है कि वे अगले कई और साल क्रिकेट खेल सकते हैं, लिहाजा अब कुछ लोग उनमें वन डे और टेस्ट में शतकों का शतक लगाने की भविष्यवाणी कर रहे हैं।
शानदार प्रदर्शन के बावजूद अलग-अलग मौकों और मुद्दों को लेकर सचिन की तरफ काफी अंगुलियां भी उठ चुकी हैं। ग्रेग चैपल ने काफी पहले कहा था कि सचिन अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुके हैं और उनमें वापसी की ज्यादा संभावना नहीं बची है, लेकिन सचिन ने हमेशा की तरह हर आलोचना का जवाब अपने बल्ले से दिया है। यह सचिन का खुद पर भरोसा ही है कि उन्होंने कभी भी क्रिकेट से विदाई का संकेत नहीं दिया। यह जरूर कहा कि आलोचक उनके बारे में कई फैसले खुद कर रहे हैं और शायद वे उनका खेल देखने का धीरज नहीं रख पा रहे हैं। 1999 के बाद एक लंबा दौर ऐसा अवश्य रहा, जब सचिन को लगातार टेनिस एल्बो और पीठ की मांसपेशियों के खिंचाव जैसी परेशानियों के कारण मैदान से दूर रहना पड़ा। इसी बीच टीम को युवा बनाने की जरूरत पर जोर देने और बढ़ी उम्र के खिलाडिय़ों से छुटकारा पाने की बात भी उठी। लेकिन आज भी जैसा प्रदर्शन सचिन कर रहे हैं, उसमें उनकी जगह पर नए खिलाड़ी के बारे में सोच पाना थोड़ा कठिन हो जाता है। तेंदुलकर सिर्फ इसलिए महान नहीं माने जाते कि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में हजारों रन बनाए और दजर्नों विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए अनेक मील के पत्थर स्थापित किए हैं। वह महान हैं, क्योंकि उनके अंदर बचपन से ही सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह रही है और इसके लिए वह किसी भी चुनौती से भागे नहीं, बल्कि उससे निपटने के लिए जी-तोड़ मेहनत की। क्रिकेट के प्रति खुद को पूरी तरह से समर्पित रखा। पिता रमेश तेंदुलकर महान संगीतकार और गायक सचिन देव बर्मन के मुरीद थे, इसलिए उन्होंने अपने छोटे बेटे का नाम सचिन रखा था। शायद उन्होंने सोचा होगा कि उनका सचिन भी बड़ा होकर संगीत की दुनिया में नाम कमाएगा, लेकिन जब सचिन की क्रिकेट के प्रति दीवानगी देखी तो बेटे को खूब प्रोत्साहित किया। सचिन ने उन्हें हमेशा उम्मीद से ज्यादा ही दिया।
सचिन इसीलिए भी महान हैं कि वे खुद को नहीं बल्कि क्रिकेट के खेल को महान मानते हैं। अपने स्कूली क्रिकेट खेलने के दिनों से आज तक क्रिकेट के प्रति समर्पण, अनुशासन और जुनून को उन्होंने कम नहीं होने दिया है। वे जीतना चाहते हैं और इसके लिए अपना सब कुछ झोंक देते हैं। हारना तो वह अपने बेटे के साथ खेलते हुए भी पसंद नहीं करते। वे टीम भावना में विश्वास रखते हैं और आलोचना पर घबराते नहीं, बल्कि उनके इरादे और दृढ़ हो जाते हैं।

रविवार, फ़रवरी 07, 2010

मैं मुंबई हूं...


मैं मुंबई हूं। मैं पहले एक टापू थी। मुंबादेवी के नाम से मेरा नाम मुंबई पड़ा। पहले मेरी पहचान मछुआरों के गांव से अधिक कुछ नहीं थी। 'कोली' समाज के लोग तब यहां रहा करते थे। तांदले, नाखवा, भोईर, भांजी, सांधे, कलसे वगैरह सब कोली समाज के ही लोग हैं। मछली पकडऩा, समुद्र की पूजा करना और भाईचारे से रहना इन सबका धर्म है। वक्त बदला तो इन लोगों ने नमक के खेत छोड़ सारी जमीन बेच दी। ईरानी, पारसी, गुजराती, मारवाड़ी और उत्तर प्रदेश व बिहार से आए लोगों ने ये जमीनें खरीदीं और यहां मिलें बनवार्ईं, कल-कारखाने शुरू किए, अखबार निकाले, प्याऊ, मंदिर, स्कूल, अस्पताल, धर्मशालाएं और गैराज आदि बनवाए। गोवानीज, पुर्तगाली और ईसाइयों के चर्च यहां पहले से ही थे। अंग्रेजों ने रेल चलाई तो इसका संचालन करने वाले ज्यादातर लोग उत्तर व दक्षिण भारतीय लोग थे। पोर्ट ट्रस्ट में भी वे सेवा में थे। मुसलमान भी थे। तब मकान के मकान खाली पड़े रहते। मकान मालिक लोगों को पकड़-पकड़कर अपना मकान लेने के लिए बुलाते। बाकी जो जमीनें बची थीं वे लीज यानी पट्टे पर थीं। ट्रामें चलती थीं। तब उत्तर भारतीय दूध का कारोबार करते थे। कच्छी-गुजराती भी दूध व होटल के कारोबार में थे। पारसी और ईरानी केक और पेस्ट्री के साथ पाव का कारोबार करते थे। मस्का मार के ईरानी चाय बहुत चलती थी। एक पाव में लोगों का पेट भर जाता था। मिलों में तीन-तीन पालियां (पारी) चलती थीं। जो बेरोजगार थे, वे किसी के नागा करने पर, बदली कामगार का काम करते थे। दोपहर में फुटपाथ पर सिले हुए कपड़े, हरी सब्जियां-फल आदि का धंधा करते। अलग-अलग क्षेत्र, भाषा और संस्कृति के लोग मजे से रहते थे। पहले खानावल चलते थे। बना बनाया भोजन घर-घर मिलता। डिब्बेवाले उसी परंपरा से निकले हैं। वे दफ्तर में डिब्बा पहुंचाते और वापस ले आते। सुबह ग्यारह बजे के बाद लोकल गाड़ी के मालडिब्बे उनके डिब्बों से भर जाते। जब शाम को रेलवे के कारखाने छूटते और दोपहर में मिलें, तो आम जनता का अथाह समुद्र सड़कों पर गहरा जाता। एक-दो घंटे में ही सारी सब्जी बिक जाती। यहां के गरीब लोग चौका-बर्तन का काम करते। उनके जैसा मेहनती कोई दूसरा नहीं है। घर चमके या न चमके, बर्तन दप-दप चमकते। चाहें तो अपना मुंह देख लें। शॉर्टहैंड और टाइपिंग के साथ-साथ नर्स के कामों की वजह से दक्षिण के लोग यहां आते गए। कुछ तो केंद्र सरकार की नौकरियों में प्रमोशन और तबादले की वजह से आए। पूरी दुनिया कहने लगी कि मुंबई जैसा कोई दूसरा कॉस्मोपोलिटन शहर नहीं है। देश के नामी-गिरामी धनपतियों, फिल्मी सितारों, खिलाडिय़ों और राजनेताओं ने मेरी शान बढ़ाई। मेरे यहां की बसें, लोकल ट्रेनें, मस्का-पाव- सभी चीजें तो बेमिसाल हैं, बदल गए या यूं कहूं बहक गए हैं, तो वे लोग जो मेरे स्वयंभूं ठेकेदार बन बैठे हैं। कहते हैं- मैं केवल मराठियों की हूं। कहने वालों की याददाश्त शायद कमजोर हो गई है, क्योंकि वे तो एक समय मध्य प्रदेश से मेरी शरण में आए थे। वे एक आदिम नारे- जिसकी लाठी उसकी भैंस को चरितार्थ कर रहे हैं, लेकिन ऐ दुनिया वालो! भैंस और एक जीते-जागते शहर में बड़ा फर्क होता है। कोई है, जो मेरे इस दर्द को समझेगा?

बुधवार, फ़रवरी 03, 2010

'अमर कथा' का अंत


समाजवादी पार्टी से अमर सिंह और उनके समर्थकों की बर्खास्तगी आश्चर्यचकित करने वाली नहीं है, क्योंकि पार्टी में उनकी खिलाफत करने वालों की बढ़ती फेहरिस्त और मुलायम सिंह की 'चुप्पी' से इसके संकेत पहले ही मिल गए थे। पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने जिस तरह से मायावती और सोनिया गांधी की तारीफ की, उसी से साफ हो गया था कि न तो अमर सिंह समाजवादी पार्टी का हिस्सा बने रहना चाहते हैं और न ही मुलायम सिंह की उनमें कोई दिलचस्पी बची है। राजनीति को संभावनाओं का खेल बताने वाले अमर सिंह ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि 14 साल तक एक पार्टी की 'सेवा' करने के बाद उन्हें अनुशासनहीनता का आरोप लगा रुखसत किया जाएगा और उम्र के इस पड़ाव में सियासी ठिकाना तलाशना पड़ेगा। 'अमर कथा' के अंत से दो सवाल बेहद मौजूं हो गए हैं- एक तो अमर सिंह किसके पहलू में अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे और दूसरा अपने पारिवारिक सदस्यों की महत्वाकांक्षाओं में उलझे मुलायम सिंह समाजवादी पार्टी को किस दिशा में ले जाएंगे? अमर सिंह भले ही जनाधार वाले नेता कभी भी न रहे हों, लेकिन वर्तमान में देश की राजनीति जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही है, उसमें उन जैसे नेताओं की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, यह किसी से छिपा नहीं है। चाहे महंगे होते चुनावों के लिए धन जुटाना हो या बहुमत लायक सीटों का इंतजाम करना, अमर सिंह इनमें उस्ताद रहे हैं। मुलायम सिंह को दूसरा अमर सिंह ढूंढने के लिए तो खासी मशक्कत करनी पड़ेगी ही, यह भी डर सताता रहेगा कि उनके 'हमराज' किसी दूसरी पार्टी में जाने पर मोर्चा न खोल दें। यह सही है कि मुलायम सिंह यादव एक जुझारू राजनेता हैं और उन्होंने यह साबित किया है कि कोई व्यक्ति कैसे अपने बलबूते सशक्त राजनीतिक दल खड़ा कर सकता है, लेकिन अब उन्हें इस पर विचार करना ही होगा कि समय के साथ उनके विश्वासपात्र सहयोगी एक-एक कर अलग क्यों होते जा रहे हैं? मौजूदा स्थितियों में सपा के समक्ष संकट इसलिए और अधिक गहरा नजर आता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस न केवल उसके जनाधार में सेंध लगाने के लिए तत्पर है, बल्कि इसके लिए कोई मौका भी नहीं छोड़ रही है। बहुत समय नहीं हुआ जब क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में सपा सबसे सशक्त नजर आती थी और संख्या बल के हिसाब से तो वह अभी भी कांग्रेस और भाजपा के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन उसके लिए यह चिंता का विषय बनना चाहिए कि वह अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में अपनी धार खोती जा रही है। अमर सिंह के निष्कासन के बाद सपा का वह खेमा तो शांत हो जाएगा, जो उन पर परंपरागत वोट बैंक को छिटकाने और पार्टी को अपनी बुनियादी जमीन से भटकाने सरीखे आरोप लगा रहा था, लेकिन इतने भर से पार्टी संकट से नहीं उबर जाएगी। वंशवाद के समक्ष घुटने टेकना मुलायम के लिए भविष्य में भारी पड़ सकता है। मुलायम को यह ध्यान रखना होगा कि एक समय परिवारवाद की राजनीति का मुखर विरोध करने वाली सपा अब वंशवाद की राजनीति का एक उदाहरण बन गई है और ऐसी पार्टियों के लिए जनाधार को बचाए रखना एक बड़ी चुनौती है। अमर सिंह के साथ चलने के आदी हो चुके मुलायम इससे कैसे निपटते हैं, उनका और समाजवादी पार्टी का भविष्य इसी से तय होना है।

शनिवार, जनवरी 23, 2010

पाकिस्तान का पागलपन


पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने यह कहकर एक बार फिर अपनी धूर्तता का परिचय दिया है कि वे भारत में मुंबई जैसे हमलों को रोकने की गारंटी नहीं ले सकते। उनके इस बयान पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, लेकिन इस बार उन्होंने अमेरिकी रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स के सामने यह राग अलापा है। पाकिस्तान गेट्स की मौजूदगी में यह कहने से भी नहीं चूका कि भारत ने मुंबई हमले के विश्वसनीय सुबूत उसे उपलब्ध नहीं कराए। स्पष्ट है कि पाकिस्तान ने जानबूझकर अपनी आंखों पर न केवल पट्टी बांध ली है, बल्कि फरेब को अपना हथियार भी बना लिया है। इसके संकेत इससे मिलते हैं कि वह बलूचिस्तान के आतंकवाद में भारत की कथित संलिप्तता दिखाने के लिए अमेरिका के कान भर रहा है। उसकी हरकतें काफी कुछ वैसी ही हैं, जैसी एक समय अफगानिस्तान पर कब्जा जमाए तालिबान के आतंकी शासन की थीं। एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान पागलपन दिखा रहा है। वह दिन प्रतिदिन लाइलाज होता जा रहा है। इसके लिए एक हद तक भारत भी जिम्मेदार है और रही-सही कसर विश्व समुदाय, खासकर अमेरिका ने पूरी कर दी है। भारत को इसका अहसास अच्छी तरह से हो जाना चाहिए कि पाकिस्तान की तरह से अमेरिका को भी हाल-फिलहाल सद्बुद्धि नहीं आने वाली। हालांकि यह शुभ संकेत है कि अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया है कि मुंबई जैसा हमला हुआ, तो भारत के सब्र का बांध टूट जाएगा, लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका पलक झपकते ही सुर बदल लेता है। अब यह आवश्यक है कि भारत पाकिस्तान से तो कड़ाई से निपटे ही, अमेरिका से भी दो टूक बात करे। अमेरिकी एजेंसियों ने कई बार यह तथ्य उजागर किया कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई आतंकवादियों को संरक्षण और बढ़ावा दे रही है, लेकिन अमेरिका ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। वह इस बात पर गौर करने के लिए भी तैयार नहीं है कि आतंकवाद को रोकने के लिए पाकिस्तान को वित्तीय और सैन्य सहायता उपलब्ध कराए जाने के बावजूद तालिबान की ताकत में बढ़ोतरी हुई है। अमेरिका चाहता है कि अल कायदा के खिलाफ अभियान में उन्हें पाकिस्तान का सहयोग मिलता रहे, लेकिन उनका ध्यान इस बात पर नहीं है कि तालिबान अब लश्करे तैयबा जैसे संगठनों के जरिए दहशतगर्दी फैला रहे हैं। पाकिस्तान को उसके हुक्मरानों की दोहरी नीति की कीमत चुकानी पड़ रही है। इसी दोहरे रवैये ने आज ऐसी हालत पैदा कर दी है कि पाकिस्तान की सत्ता आतंकवादियों के सामने इस कदर असहाय नजर आती है। इस तेजी से फैल रही आग पर काबू पाने के लिए वहां के राजनीतिक नेतृत्व को अपनी दुविधा से उबरना होगा। वे भारत को नुकसान पहुंचाने के पागलपन में खुद को ही तबाह कर रहा है। निश्चित रूप से अमेरिका को भी अपना वह चश्मा बदलना होगा, जिससे उसे आतंकवाद सिर्फ दुनिया के उसी हिस्से में नजर आता है, जहां उसके सैनिक घिरे होते हैं। भारतीय नेतृत्व को विश्व समुदाय को सीधा संदेश देना चाहिए कि वह आखिर कब तक पाकिस्तान को माफ करता रहेगा? हमें यह साबित करना होगा कि पाकिस्तान का मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान आतंकवाद का समर्थक और संरक्षक हैं। पाकिस्तान की घेरेबंदी करने में युद्ध के अतिरिक्त अन्य सभी उपाय किए जाने चाहिए।

शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

माया मेमसाब अब तो शर्म करो...


स्मारकों, मूर्तियों और पार्र्कों के निर्माण में करोड़ों रुपये फूंकने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार का इनकी चौकीदारी के लिए 'स्टेट स्पेशल जोन सिक्युरिटी फोर्स' के गठन की कवायद यह साबित करने के लिए काफी है कि जनता के पैसे को कैसे बर्बाद किया जाता है। वैसे तो केंद्र से लेकर राज्यों तक कमोबेश सबकी यही कहानी है, लेकिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री इसमें निश्चित रूप से अव्वल हैं। वे पूरे राज्य को मूर्तियों, स्मारकों और पार्र्कों से पाटकर न जाने किसका भला करना चाहती हैं? आज यदि राज्य में सड़क-बिजली-पानी सरीखी आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं, मजदूर-किसान बदहाल हैं, बेरोजगार युवकों को नौकरी नहीं है और उद्योग नहीं पनप रहे हैं, तो इसके लिए सूबे की मुखिया मायावती का मूर्ति प्रेम भी कम जिम्मेदार नहीं है। मायावती एक साथ दो मोर्र्चों पर गलती कर रही हैं। एक तो वे सरकारी खजाने को मूर्ति, पार्क और स्मारकों जैसे अनार्थिक क्षेत्रों पर खर्च कर रही हैं और दूसरे आर्थिक बदलाव के किसी बड़ी योजना को लागू नहीं कर रही हैं। उत्तर प्रदेश जैसे खस्ताहाल राज्य के मुखिया का यह रवैया किसी जुर्म से कम नहीं माना जाना चाहिए। वर्तमान में उत्तर प्रदेश का सारा राजस्व सरकारी खर्च में चला जाता है, उस पर कर्ज का भारी बोझ है और मानवीय या आर्थिक हर पैमाने पर वह देश के सबसे गए-बीते राज्यों में गिना जाता है। यदि सरकार इसी ढर्रे पर चलती रही, तो राजनीतिक रूप से देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्य को दिवालिया होने से कोई नहीं बचा सकता। जाहिर तौर पर राजनेताओं का कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि बदहाली भी उसका एक हथियार है, लेकिन उत्तर प्रदेश के लोगों को जो झेलना पड़ेगा, वह सियासत कतई नहीं होगी, वह मानवीय त्रासदी होगी।
यह तो समझ में आता है कि दलित हितों की पैरवी करने वाली मायावती अंबेडकर, महात्मा फुले या काशीराम आदि की मूर्तियां लगवाएं, लेकिन वे तो खुद की बुत भी लगवा रही हैं। इसमें संदेह नहीं कि मायावती आज देश के एक बड़े राज्य की मुख्यमंत्री हैं और दलित क्षमता व दलित उपलब्धि का एक प्रतीक हैं, लेकिन ये और ऐसे कारण उनकी आत्म-मुग्धता का औचित्य सिद्ध नहीं करते। यह सही है कि सवर्र्णों की तुलना में दलित महापुरुषों को देश में सम्मान नहीं मिला है, लेकिन यह मूर्तियों की संख्या से निर्धारित नहीं होगा। वह चाहे दलित हों, अल्पसंख्यक हों या फिर और कोई वंचित तबका, उनका भला करना है तो उन्हें प्रतीकात्मक रूप से शक्तिशाली दिखाने से कुछ नहीं होगा, उन्हें असल में वे सुविधाएं और संसाधन मुहैया कराने होंगे जिनसे वे बराबरी हासिल कर सकें। देश बदल रहा है, तो इसकी सबसे ज्यादा रोशनी उत्तर प्रदेश पर पडऩी चाहिए, लेकिन उजाला तब होगा जब उत्तर प्रदेश अपने पैरों पर खड़ा होगा। इतने बड़े राज्य का पिछड़ा रहना पूरे देश की तरक्की पर लगाम लगाता है। मायावती अक्सर केंद्र से मदद की गुहार करती हैं, लेकिन पहले वे खुद अपने खजाने का सही इस्तेमाल करना तो सीखें। वे जितना ध्यान सोशल इंजीनियरिंग के सहारे देश के बाकी हिस्सों में पैठ जमाने में लगाती हैं, यदि उसका थोड़ा भी उत्तर प्रदेश की तरक्की के लिए लगा दें, तो उत्तर प्रदेश की जनता उन्हें बिना मूर्ति के ही पूजने को तैयार हो जाएगी। इसका मंत्र सीखने के लिए उन्हें दूर जाने की जरूरत नहीं है। उनके पड़ोस में ही नीतिश कुमार बिहार का कायाकल्प करने में लगे हैं।

गुरुवार, जनवरी 21, 2010

इन नेताओं की टैक्सी पंचर करो


यह विडंबना ही है कि महाराष्ट्र राजनीतिक दलों के लिए क्षेत्रवाद की प्रयोगशाला बनता जा रहा है और बाल ठाकरे व राज ठाकरे के पदचिह्नों पर चलते हुए सत्ताधारी कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन भी इसका सहारा लेकर अपने राजनीतिक हित साधना चाहता है। स्थानीय निकाय चुनावों में बढ़त हासिल करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने यह निर्णय किया है कि टैक्सी का लाइसेंस अब उन्हीं को दिया जाएगा जिन्हें मराठी अच्छी तरह से आती है और राज्य में कम से कम 15 साल से रह रहे हों। सरकार यह तालिबानी फरमान जारी कर किसका भला करना चाहती है? चुनाव नजदीक आते ही उसे 'मराठी माणुस' की याद क्यों आई है? यदि पूरा देश महाराष्ट्र की तर्ज पर चले तो आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में बंगाली, केरल में मलयाली, आंध्र प्रदेश में तेलगू, तमिलनाडु में तमिल और असम में असमिया ही रहेंगे? क्या यह देश के संघीय ढांचे को सीधे-सीधे चुनौती नहीं है? सत्ता के लिए देश का यह बंटवारा राजनीति की दुकान खोलकर बैठे जो लोग कर रहे हैं क्या उन्हें पता है कि अगर देश ही नहीं रहेगा तो वे खुद कैसे बचेंगे? राष्ट्रीय दलों का देश के पैमाने पर क्षेत्रीय दलों के सामने कमजोर पडऩा और बदले में की जा रही ओछी राजनीति ने देश को ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया हैं जहां राष्ट्रीय कानून के होते हुए भी राष्ट्रीयता की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इसके लिए मौजूदा दौर की राजनीति के वे दलाल दोषी हैं, जिन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं कि हिंदुस्तान की एकता को चुनौती देने के खिलाफ कड़े कानून बनाए जाने चाहिए जिससे ऐसे तत्व कभी सिर ही नहीं उठा सकें। महाराष्ट्र क्षेत्रीयता की आग में कुछ ज्यादा ही झुलस रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान में पूरे देश में कमोबेश यही हालात हैं। पश्चिम बंगाल में कभी मारवाडिय़ों पर टिप्पणी की जाती है, तो असम से बंगालियों को खदेड़ा जाता है। बंगाल में हिंदी माध्यम से पढ़ रहे छात्रों को हिंदी में प्रश्नपत्र सिर्फ इसलिए नहीं दिए जाते हैं कि इससे बंगाली मानसिकता को सरकार भुनाती है। सुनील गंगोपाध्याय जैसे बांग्ला के प्रख्यात विद्वान-साहित्यकार हिंदी भाषियों को सरेआम खदेडऩे की बात करते हैं। दक्षिण में हिंदी व हिंदी भाषियों का विरोध जगजाहिर है। पंजाब और असम में सरेआम हिंदी भाषी मजदूरों को वहां के जातीय संगठन मार डालते हैं। लोग भागने और दरबदर होने को मजबूर होते रहते हैं, मगर इसे रोकने की जगह बड़े या क्षेत्रीय दल सिर्फ राजनीतिक लाभ उठाने की संभावनाएं तलाशते नजर आते हैं। क्या मानकर चला जाए कि एकछत्र भारत की अब किसी दल को जरूरत नहीं? शायद ऐसा ही लगता है। सभी राजनीतिक अवसरवादिता की रोटी सेक रहे हैं। आखिर हो क्यों नहीं? यही क्षेत्रीय क्षत्रप ही तो केंद्र में सरकारें चलवा रहे हैं और सत्ता के भागीदार हैं। मलेशिया जैसा छोटा देश भी आज भारत के सामने बड़ी आर्थिक ताकत इसलिए है, क्योंकि वहां किसी को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ खिलवाड़ की छूट नहीं है। वहां ऐसे कानून हैं जो किसी को भी राष्ट्रविरोधी होने से पहले सौ बार सोचने पर मजबूर कर देते हैं। क्या भारत को ऐसे कानून पर विचार नहीं करना चाहिए। आखिर यहां भी तो ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि क्षेत्र, भाषा, धर्म और जाति के नाम पर चलाए जाने वाले राजनीतिक अभियान देश की अखंडता को सीधी चुनौती पेश करते हैं।

बुधवार, जनवरी 20, 2010

खेलों से खिलबाड़ कब बंद होगा?



बीजिंग ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचने वाले निशानेबाज अभिनव बिंद्रा को विश्वकप व राष्ट्रमंडल खेलों की टीम से बाहर किया जाना घोर निंदनीय है। भारतीय राष्ट्रीय रायफल संघ (एनआरएआई) से यह पूछा जाना चाहिए कि उसने क्या सोचकर यह बेतुका फरमान जारी किया है? महज इस आधार पर बिंद्रा को टीम से बाहर नहीं किया जा सकता कि उन्होंने एनआरएआई के 'ट्रायल' में हिस्सा नहीं लिया। जिस खिलाड़ी ने ओलंपिक में दुनिया के धुरंधर निशानेबाजों को पछाड़ते हुए स्वर्ण पदक जीता हो, उसकी योग्यता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। रही बात नियमों की तो एनआरएआई किस मुंह से इनकी बात कर रही है? इसकी कार्यप्रणाली पर आए दिन अंगुलियां उठती रहती हैं। न्यायालय भी इस पर टिप्पणी कर चुका है। एनआरएआई ने खेल के विकास पर ध्यान दिया होता तो बिंद्रा को प्रशिक्षण के लिए जर्मनी जाने की जरूरत नहीं पड़ती। बिंद्रा के साथ हुए बर्ताव के लिए खेल मंत्रालय भी कम दोषी नहीं है। दरअसल, एनआरएआई भारतीय ओलंपिक संघ की प्राथमिकता सूची में आता है और सरकार उसकी प्रतियोगिताओं से लेकर विदेशी दौरों तक का पूरा खर्च उठाती है। खेल मंत्रालय की ओर से ऐसे सभी खेल संघों को आदेश दे रखा है कि टीमें ट्रायल से चुनी जाएं। ऐसे में एनआरएआई ने खुद को खेल मंत्रालय का वफादार साबित करने के लिए ट्रायल पर नहीं आए बिंद्रा को टीम से बाहर कर दिया। उसने यह भी नहीं सोचा कि यह वही अभिनव है, जिसने ओलंपिक की व्यक्तिगत स्पर्धा में भारत के स्वर्ण पदक जीतने के इंतजार को खत्म कर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि विश्वकप और राष्ट्रमंडल खेलों सरीखी महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में देश का शीर्ष निशानेबाज हिस्सा नहीं ले पाएगा? अगर बिंद्रा इनमें हिस्सा लेते तो निश्चित ही भारतीय टीम के पदकों की संख्या में इजाफा होता और कई नौजवान उन जैसा बनने की प्रेरणा लेते, लेकिन जिस देश में खेल संघ राजनीति का अखाड़ा हो और सरकार के पास कोई स्पष्ट खेल नीति नहीं, वहां ऐसी उम्मीद करना बेमानी है। खेल मंत्रालय की अस्पष्ट नीति के कारण ही खिलाडिय़ों और खेल संघों के बीच मतभेद पैदा होते हैं, जिसका नुकसान खेल प्रतिभाओं को झेलना पड़ता है। नतीजतन एक अरब की आबादी का देश अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में एक अदद पदक और जीत के लिए तरसता रहता है। बिंद्रा मामले के बहाने देश की खेल नीति की बेशुमार कमजोर कडिय़ां एक बार फिर सामने आ गई हैं। खेल मंत्रालय कहता है कि बिना ट्रायल खिलाडिय़ों को टीम में न रखा जाए और बाद में उसके अधिकारी कहते हैं कि अगर संघ चाहे तो ऐसे खिलाडिय़ों को बिना ट्रायल के चुन सकते हैं, जबकि सबसे बड़ा पेच यही है। दुर्भाग्य से देश में खेल के साथ खिलवाड़ करने और खिलाडिय़ों के भविष्य को बर्बाद करने वाली ऐसी घटनाओं की फेहरिस्त दिनोंदिन लंबी होती जा रही है। यदि सरकार ने अपनी खेल नीति और खेल संघों ने अपने कामकाज के तरीके को नहीं सुधारा तो स्थिति और भयावह होगी। जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में प्रतिस्पर्धा कड़ी होती जा रही है, तब यदि हमें कहीं ध्यान देने की जरूरत है तो वह है सुविधाओं का विकास और खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन, ताकि वे मैदान पर भी भारत की बुलंदी के झंडे गाड़ सकें।

शनिवार, जनवरी 16, 2010

अब तो सरहद को संभाल लो


रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी के बाद थलसेना प्रमुख जनरल दीपक कपूर का यह कहना कि सरहद पार से बड़ी संख्या में आतंकी घुसपैठ की तैयारी में हैं, देश की सुरक्षा के सम्मुख गंभीर खतरा है, भले ही यह दावा किया जाए कि हम इनसे निपटने के लिए पूरी तरह मुस्तैद हैं। सुरक्षाबलों के तमाम दावों के बावजूद न केवल घुसपैठ बदस्तूर जारी है, बल्कि दिनोंदिन इसमें इजाफा भी हो रहा है। आखिर कड़े इंतजामों के बाद भी यह सिलसिला खत्म क्यों नहीं होता? अमूमन हर साल जिस तरह से सर्दियों में घुसपैठ बढ़ती है, उससे तो यही लगता है कि हाड कंपा देने वाली ठंड में भारतीय सीमा रक्षकों की मुस्तैदी भी ठंडी पड़ जाती है। मुमकिन है ऐसा न हो, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि सरहद और खासकर जम्मू-कश्मीर में सैनिकों की तादाद कम करने की कवायद घुसपैठ बढ़ाती है। रक्षा मंत्री और थलसेना प्रमुख स्वीकार कर चुके हैं कि 2008 में जहां महज 57 आतंकियों ने घुसपैठ की थी, वहीं 2009 में 30 नवबंर तक यह आंकड़ा 110 तक पहुंच चुका है। इस अवधि के दरम्यान ही जम्मू-कश्मीर में सैनिकों की संख्या को लेकर सर्वाधिक हो-हल्ला हुआ था। तो क्या यह माना जाए कि सैनिकों की संख्या में कटौती से आतंकियों के लिए घुसपैठ का माहौल बना? राज्य में आतंकी हिंसा का स्तर घटाने में पुलिस सक्षम हुई होगी, लेकिन क्या महज इस आधार पर ही सीमा क्षेत्र में निगरानी कम कर दी जाए? सब चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में शांति बहाल हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के इस सर्वाधिक संवेदनशील राज्य के एक ओर पाकिस्तान और दूसरी ओर चीन गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठा है। खासकर पाकिस्तान यह कभी नहीं चाहेगा कि जम्मू-कश्मीर में जिंदगी पटरी पर लौटे। यदि सूबे के तेजी से सुधरते हालात देखकर पाकिस्तान में रहकर नेटवर्क संचालित कर रहे आतंकी संगठनों की बेचैनी बढ़ रही है, तो इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उनसे और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती, लेकिन मानवाधिकारों की दुहाई देकर सीमाओं की चौकसी कम कर देना उनका स्वागत करने जैसा है। जम्मू-कश्मीर की आवाम और उनके निजाम उमर अब्दुल्ला को यह समझना होगा कि सेना रात के अंधेरे में अपनी कार्रवाई इस बात की तस्दीक करते हुए नहीं कर सकती कि कौन घुसपैठिया है और कौन बेगुनाह। सेना की विवशता को भी समझना जरूरी है। उसकी नागरिकों से कोई दुश्मनी नहीं है। वह वहां आतंक के खात्मे के लिए तैनात है न कि आम आदमी की दुश्वारियां बढ़ाने के लिए। सैनिकों की संख्या में कटौती करने से पहले इस पहलू पर विचार कर लेना जरूरी है कि आतंकी इसका कोई फायदा तो नहीं उठाएंगे। पाकिस्तान से सटी सीमा पर ही पूरा ध्यान केंद्रित करना बड़ी भूल हो सकता है, क्योंकि चीन की चालें भी कम खतरनाक नहीं हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय भूमि पर उसकी टेडी नजर है। चीनी हुक्मरानों ने कभी नहीं चाहा कि भारत में अमन-चैन रहे और वह तरक्की की राह पर चले। पाकिस्तान के साथ उसका गठजोड़ इसी का नतीजा है। दोनों ओर खतरा जिस तेजी से बढ़ रहा है, उससे निपटने के लिए न केवल सुरक्षाबलों की संख्या बढ़ाना जरूरी है, बल्कि उन्हें अत्याधुनिक संसाधन उपलब्ध कराना भी आवश्यक है। शातिर आतंकियों को परंपरागत संसाधन बोने साबित हो रहे हैं।

फिर वही सुरक्षा का आवश्वासन


ऑस्ट्रेलियाई सरकार का यह ताजा भरोसा कि भारतीयों के लिए ऑस्ट्रेलिया सुरिक्षत स्थान है, तब तक महज एक कोरा बयान माना जाएगा, जब तक भारतीय नागरिकों पर हो रहे हमले पूरी तरह से थम न जाएं। वहां की सरकार इस तरह के आश्वासन पहले भी दे चुकी है, लेकिन इसके बावजूद भी भारतीय लगातार निशाना बन रहे हैं। सरकार की ओर से अब तक भारतवासियों की सुरक्षा के लिए न तो कोई विशेष प्रबंध किए गए हैं और न ही ऐसा कुछ करने के संकेत दिए हैं। उल्टे कुछ दिन पहले दो नौजवानों का कत्ल होने पर सरकार की ओर से यह बयान आया कि हत्या होना कोई नई बात नहीं है, ऐसा दिल्ली और मुंबई में भी होता है। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार को भारतीयों की पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन देना पड़ा। दरअसल, भारतीय छात्र ऑस्ट्रेलिया के शिक्षा उद्योग की रीढ़ हैं और हमलों के बाद इनकी संख्या में भारी कमी आ रही है। वहां की सरकार को भारतीयों की सुरक्षा से ज्यादा इस बात की चिंता है कि कहीं देश के शिक्षा उद्योग को करोड़ों डॉलर का चूना न लग जाए। यही वजह है कि अपने तल्ख बयानों के लिए जानी जाने वाली ऑस्ट्रेलियाई उप प्रधानमंत्री जुलिया गिलार्ड का सुर बदला हुआ है और वे यहां तक कह रही हैं, 'मैं इस बात को समझ सकती हूं कि अगर भारत में आपका परिवार है और आप अपने किसी छोटे सदस्य को दूसरे देश में भेज रहे हैं, तो आप इस बात को लेकर सबसे अधिक चिंतित होंगे कि वह वहां कितना सुरक्षित है।' क्या उनके इतने कहने भर से ही भारतीयों पर हो रहे हमले रुक जाएंगे? ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले की कोई एकाध घटना नहीं हुई है। पिछले एक साल में भारतीय छात्रों पर 100 से ज्यादा हमले हुए हैं। पिछले दिनों हमलावरों से दो छात्रों को तो जान से ही मार डाला। इस दौरान वहां की पुलिस एकाध मौकों पर सक्रिय दिखी और कुछ हमलावरों को पकड़ा भी गया, लेकिन ऑस्ट्रलियाई सरकार यह सफाई देने में ही उलझी रही कि ये नस्लवादी हमले नहीं हैं, ये अपराध की सामान्य घटनाएं हैं, जिनमें अपराधियों ने नाइट शिफ्ट में काम करने वाले और अपने महंगे आईपॉड, मोबाइल फोन और लैपटॉप का प्रदर्शन करने वाले भारतीय छात्रों को अपना निशाना बनाया है। यह जवाबदेही से मुंह चुराने जैसा है। जिस तरह ऑस्ट्रेलियाई के शिक्षण संस्थान भारत में कैंप लगाकर शिक्षा और रोजगार के सुहाने सपने दिखाकर भारतीय छात्रों को अपने यहां बुलाते हैं, उसी तरह यह जिम्मेदारी वहां की सरकार की है कि वह उनकी सुरक्षा का भी ख्याल रखे। ऐसा करना उसके हित में भी है। इस समय ऑस्टे्रलिया में लगभग एक लाख भारतीय छात्र हैं। इनकी फीस के रूप में वहां के शिक्षण संस्थानों को हर साल सीधे-सीधे करीब दो अरब डॉलर प्राप्त होते हैं। यह रकम उनके लिए संजीवनी से कम नहीं है, क्योंकि वैश्विक मंदी के कारण भारी वित्तीय दबावों से गुजर रही सरकार ने उन्हें दिए जाने वाले अनुदान में भारी कटौती की हुई है। ऑस्ट्रेलियाई सरकार यह तो चाहती है कि विदेशी छात्रों की आमद न रुके, लेकिन उनकी सुरक्षा का सवाल उठने पर वह इसका दोष छात्रों पर ही मढ़ देती है। यदि यही रवैया जारी रहा तो ऑस्टे्रलिया के शिक्षा उद्योग का ठप होना तय है। वहां के नीति-नियंताओं को चाहिए कि वे कोरे आश्वासन देना छोड़, दूर देश से पढऩे आने वाले छात्रों की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करें।